Ashtavakra Gita PDF | अष्टावक्र गीता व्याख्या सहित

अष्टावक्र गीता अष्टावक्र व राजा जनक के मध्य हुए ब्रह्म विद्या विषयक संवाद का अद्भुत ग्रंथ है। परब्रह्म परमात्मा की अहैतुक कृपा एवं प्रेरणा और उनके परम ज्ञान की दैवी शक्ति माँ शारदा की दैवी अनुग्रह से सङ्कलनकर्ता ने आस्थावान, निष्ठावान, विश्वासी और श्रद्धालु भगवत्मक्तों की अभिलाषा की पूर्ति के लिए आध्यात्मिक गुरु अष्टावक्र द्वारा महाराज जनक को दिये गए दिव्य उपदेशों को Ashtavakra Gita PDF के रूप में जन कल्याणार्थ हिन्दीभाषी सुधी पाठकों की बोधगम्यता के पुनीत उद्देश्य से हिन्दी में सङ्कलित किया है। सङ्कलनकर्ता को पूर्ण आशा एवं विश्वास है कि विजिगीषु पाठकगण लाभान्वित होंगे। पूर्ण आस्था, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा और लगन से अष्टावक्र के उपदेशों का मनसा अथवा वाचा स्वाध्याय स्वाध्यायी के आध्यात्मिक स्तरोन्नयन में अनिवार्यतः सफलप्रद सिद्ध होगा। आप भी इस ग्रंथ को पढ़ें तथा अपना जीवन सफल बनायें।


Ashtavakra Gita PDF

PDF of Ashtavakra Gita
PDF Nameअष्टावक्र गीता | Ashtavakra Gita Hindi PDF
PDF Size18.6 MB
Pages405

अष्टावक्र गीता ओशो PDF

‘स्व’ अर्थात् आत्मा का बोध न होने के कारण ही जीव मुक्ति या मोक्ष के लिए छटपटाता है। लेकिन जब ‘स्व’ का बोध हो जाता है तब वह जान लेता है कि वह तो प्रकृतिशः मुक्त ही है। यह सत्य भी है कि जीव जब पैदा होता है तब उसमें अपने-पराए, सुख-दुःख का भाव नहीं होता। लेकिन जैसे-जैसे संसार में उलझता जाता है, वह स्वयं को बंधनग्रस्त अनुभव करने लगता है। यह बंधन ही उसकी मुक्ति में बाधक है। प्रस्तुत Ashtavakra Gita PDF राजा जनक व अष्टावक्र के मध्य हुए तात्त्विक संवाद है । आप सम्पूर्ण भावगत गीता यहाँ से डाउनलोड कर पढ़े – Shri Bhagwat Geeta in Hindi PDF

अष्टावक्र का संक्षिप्त परिचय

त्रेता युग में पूर्वी हिमालय के पाद प्रदेश में कलाप नामक ग्राम में प्रसिद्ध उद्दालक मुनि का आश्रम था। उद्दालक मुनि के शिष्यों में कहोड़ नामक एक शिष्य था जो वेद-वेदांगों के अध्ययन-मनन में पारंगत नहीं था तथापि उसकी सत्यनिष्ठा और अटूट श्रद्धा भक्ति से प्रभावित होकर उद्दालक मुनि ने अपनी परम विदुषी पुत्री सुजाता का पाणिग्रहण संस्कार कहोड़ से कर दिया। सौभाग्यवती सुजाता के गर्भ से अष्टावक्र का जन्म हुआ जो जन्मना शरीर के आठ अंगों से टेढ़े थे। अतः उनका नामकरण अष्टावक्र हुआ। उद्दालक मुनि के सान्निध्य में पालन-पोषण अध्ययन होने के कारण जन्मना और कर्मणा ब्राह्मण वर्ण के अष्टावक्र अल्पायु (12 वर्ष) में ही वेद और वेदान्त के गूढ़ रहस्यों की जानकारी प्राप्त कर प्रतिभाशाली हो गये।

अष्टावक्र गीता भ्रम निवारण

जनक का नाम आते ही प्रायः यह समझा जाता है कि ये वही जनक होंगे जो जानकी (सीता) के पिता थे। लेकिन यह मिथ्या भ्रम है। सीता के पिता भी जनक ही थे लेकिन उनका नाम सीरध्वज था। उनका काल त्रेता था। द्वापर में जो जनक राजा थे उन्होंने मुनि शुकदेव को ज्ञान दिया था। अष्टावक्र उसके बाद के हैं। अत: संभव है कि द्वापर के अंतिम समय में जो राजा जनक नाम से जाने जाते रहे होंगे, ये वही जनक होंगे।

सीरध्वज जो सीता के पिता थे, वे हस्वरोमा के पुत्र थे। उनके भाई कुशध्वज थे। उनके बाद जो राजा हुए, वे हैं— धर्मध्वज, कृतध्वज, मितध्वज, केशिध्वज, खांडिक्य आदि । संभव है कि राजा सीरध्वज के बाद जो राजा मिथिला में जनक नाम से प्रसिद्ध हुए उनमें से कोई हो। अष्टावक्र महागीता में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है।

मिथिला के जितने भी राजा हुए वे सभी जनक या वैदेह कहलाते थे। यह उनकी एक प्रकार से उपाधि थी। इसके मूल में एक आख्यान है जो श्रीमद्भागवत पुराण व अन्य पुराणों में देखने को मिलता है।

आख्यान के अनुसार निमि राजा इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे। एक बार उन्होंने महर्षि वशिष्ठ का यज्ञ के लिए वरण किया। वशिष्ठ उनके कुल पुरोहित भी थे। लेकिन वशिष्ठ ने कहा कि देवराज इंद्र ने पहले ही पराशक्ति यज्ञ के लिए उनका वरण कर लिया है। अतः वे पहले देवराज का यज्ञ पूर्ण कराएंगे। तब तक तुम प्रतीक्षा करो।

सुनकर निमि मौन रह गए। इंद्र के यज्ञ में वशिष्ठ को पांच सौ मानवीय वर्ष लग गए तो निमि ने विचार किया कि जीवन का क्या भरोसा ! अतः कुछ प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने अन्य ऋत्विजों का वरण करके यज्ञ प्रारंभ किया। इसी मध्य वशिष्ठ इंद्र का यज्ञ संपन्न करवाकर लौट आए। जब उन्होंने देखा कि निमि ने यज्ञ प्रारंभ करा दिया है और उनकी

प्रतीक्षा भी नहीं की तब उन्होंने निमि को अभिमानी जानकर देहपात का शाप दे दिया। निमि ने शाप को धर्म विरुद्ध समझा और उन्होंने भी वशिष्ठ को शाप देते हुए कहा कि लोभ के कारण तुमने धर्म का निरादर किया है अत: तुम्हारा भी देहपात हो जाए।

बाद में वशिष्ठ ने देह का त्याग करके मित्रावरुण द्वारा उर्वशी के गर्भ से शरीर धारण किया।

इधर राजा निमि का शरीर ब्राह्मणों ने सुरक्षित रख दिया था। सत्रयाग की समाप्ति हुई तब देवता भी वहां उपस्थित हुए। उस समय ब्राह्मणों ने देवताओं से प्रार्थना की कि हे देवताओ! ऐसा कुछ करें जिससे राजा निमि जीवित हो जाएं।

लेकिन निमि के आत्मा ने कहा कि वे शरीर धारण करना नहीं चाहते। तब देवताओं ने ब्राह्मणों से कहा कि मुनियो ! राजा निमि विदेह रूप से प्राणियों के नेत्रों में वास करेंगे और सूक्ष्म शरीर से ईश्वर का चिंतन करेंगे। उनके अस्तित्त्व का पता पलकों के उठने व गिरने से लगेगा।

अब मुनियों ने सोचा कि नगर में राजा के न रहने से अराजकता फैलेगी। अतः उन्होंने निमि के शरीर को मथना प्रारंभ कर दिया।

इस प्रकार देह मंथन करने से एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ। वह बिना देह के उत्पन्न हुआ था, अतः वैदेह कहलाया और मंथन करने से उत्पन्न हुआ था, अत: मिथि या मिथिल कहलाया। बाद में उसी ने मिथिलापुरी बसाई थी। तभी से मिथिला पर शासन करने वाले जितने भी राजा हुए जनक या वैदेह नाम से प्रसिद्ध हुए। वे

निमि के शरीर से उत्पन्न मिथ या मिथिल जनक के बाद अनेक राजा हुए जिनका विवरण श्रीमद्भागवत पुराणानुसार इस प्रकार है:

मिथिल जनक से उदावसु, उदावसु से नंदिवर्धन, नंदिवर्धन से सुकेतु, सुकेतु से देवरात, देवरात से बृहद्रथ, बृहद्रथ से महावीर्य, महावीर्य से सुधृति, सुधृति से धृष्टकेतु, धृष्टकेतु से हर्यश्व, हर्यश्व से मरू, मरू से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत विश्रुत से महाधृति, महाधृति से कृतिरात, कृतिरात से महारोमा, महारोमा से स्वर्णरोमा, स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा, ह्रस्वरोमा से सीरध्वज (जो सीता के पिता थे) । सीरध्वज से कुशध्वज, कुशध्वज से धर्मध्वज, धर्मध्वज से कृतध्वज व मितध्वज ।

अष्टावक्र राजा जनक को Ashtavakra Gita PDF में यही समझाते हैं कि जनक! संसाररूपी सागर में अकेला तू ही था, भविष्य में भी रहेगा। तेरे लिए न बंधन है और न मोक्ष। अर्थात तू आत्मा है और आत्मा का कभी नाश नहीं होता। वह सृष्टि के प्रारंभ में भी था, वर्तमान में भी है और सृष्टि नष्ट हो जाने पर भी रहेगा। आत्मा का न तो कोई बंधन होता और न ही मोक्ष। आत्मा स्वतंत्र है और मोक्ष तो उसका स्वभाव ही है। तुझे आत्मबोध हो चुका है, इसलिए तू कृतार्थ है। तुझमें अद्वैतभाव का जागरण हो गया है, तेरे लिए अन्य कोई है ही नहीं । अतः तू सुखपूर्वक जहां चाहे, वहां विचरण कर ।

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